भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ाब में वो घुमाते रहे / आर्य हरीश कोशलपुरी
Kavita Kosh से
ख़ाब में वो घुमाते रहे
हम न फूले समाते रहे
ढेरों चेहरे बदल करके वो
सब्र को आजमाते रहे
पत्थरों से नही हम प्रिये
फूल से चोट खाते रहे
सुब्ह की फ़िक्र में उम्र भर
कोरे सूरज उगाते रहे
वैसे थीं हर तरफ नफ़रतें
प्रेम का गीत गाते रहे
माँग लीं रोटियाँ जो कहीं
मेरी गरदन दबाते रहे