कब्र के आइने में अक्स-ए-हयात आए
आज फिर लब पे तब्बस्सुम के ख़्यालात आए
ग़म-ए-जहाँ मेरी चौखट पे, यूँ आते हैं जैसे
दर-ए-मुफ़लिस पे, शहंशाह की बारात आए
बस इसी आस में तकता हूँ ऐ रकीब तुझे
कि तेरे लब पे कभी दोस्ती की बात आए
इल्तजा है कि जब मैं शब के सफ़र पर निकलूँ
मेरा साया मेरे बदन के साथ-साथ आए
ख़ाक भी डाली,तो तुरबत से उठाकर डाली
आखिरी वक़्त भी आए तो खाली हाथ आए
तर मेरा तकिया ये कहता है कि ‘सूरज’ निकले
धूप में तलवे दुआ करते हैं कि रात आए