भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खिड़की से झाँक रहे तारे / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
खिड़की से झाँक रहे तारे!
जलता है कोई दीप नहीं,
कोई भी आज समीप नहीं,
लेटा हूँ कमरे के अंदर बिस्तर पर अपना मन मारे!
खिड़की से झाँक रहे तारे!
सुख का ताना, दुख का बाना,
सुधियों ने है बुनना ठाना,
लो, कफ़न ओढाता आता है कोई मेरे तन पर सारे!
खिड़की से झाँक रहे तारे!
अपने पर मैं ही रोता हूँ,
मैं अपनी चिता संजोता हूँ,
जल जाऊँगा अपने कर से रख अपने ऊपर अंगारे!
खिड़की से झाँक रहे तारे!