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गरजत असाढ़ मास पागल घन घोर चहुँ / महेन्द्र मिश्र

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गरजत असाढ़ मास पागल घन घोर चहुँ
सावन मनभावन मोरे जीव को डेरावत है
भादो की अन्हारी रैन बिजुरी चमक रही
पपीहा के बैन सुनी काम तरसावत है।
आसिन में उठत पीर हीय नाहीं धरत धीर।
कतिक में कामिनी के कंत नाहीं आवत है।
अगहन में लगी आस कान्हा नहीं आयो पास
पूस माधा जाई गले कूबड़ी लगावत है।
फागुन बसंत छाई विरहिन के विरह आई
कोकिल के बैन आग तन में लगावत है।
चइत चित लायो नहीं बइसाख जेठ बीत गयो
कइसे रहूँ स्याम बिनु नींद नहीं आवत है।
चितवत महेन्द्र एक वियोगिनी के दुख बढ़े
मदभरी अंखियन से आग बरसावत है।