गायिका / गणेश पाण्डेय
बस
ऐसे ही
गाती रहो गायिका
इस जमघट के घट-घट में
ढूँढ़ो
नन्द के लालन को
पकड़ो
रंग डारो
छा जाओ गायिका
आतुर
रागमेघ बनकर टूट पड़ो
अरराकर
विकल अति तप्त धरा के
एक-एक कण
और एक-एक बीज को
छू-छू कर बरसो गायिका
एक-एक पुकार से
लिपट-लिपट कर बरसो
गायिका
आज की रात
और
मेरे जीवन की रात के हर क्षण को
बना दो अपने जैसी गाती हुई ।
यह एक खास रात है
गायिका
तुम बरस रही हो
और कोई तुम्हें सुन रहा है
रोम-रोम से
ऐसे ही बरसती रहो गायिका
अनुभव और स्मृति की उर्वर घरती पर
तुम गा रही हो
तुम बरस रही हो मुझ पर ऐसे
कि कोई और नहीं बरस रही है
पृथ्वी पर
कोई और गायिका नहीं गा रही है
किसी लोक में ऐसे
कोई और नहीं सुन रहा है तुम्हें
जिस तरह मैं सुन रहा हूँ तुम्हें ।
गायिकी की नौका में तुम्हारे संग
ऐसे ही हिचकोले खाते रहना चाहता हूँ
सारी रात
ऐसे ही गाती रहो गायिका
जैसे
नन्ही-नन्ही उँगलियों के इशारे पर
नाचता है तुम्हारा हारमोनियम
बांसुरी जैसे
जैसे ढोल ।
ऐसे ही गाती रहो
ऐसे ही बार-बार
गंव से लट पीछे ले जाओ
छेड़ती रहो
आलाप जैसी उठी हुई बाँहों से तान
एक-एक बोल पर
थिरकती हुई अपनी आँखों से गाओ
गाते हुए होंठों से गाओ
कण्ठ के भीतर बैठी हुई
राधा के कण्ठ से गाओ
गायिका
ऐसे ही ।
कोई और फिर से याद आकर
जाए तो जाए निष्ठुर
आज की रात
मुझे छोड़कर
तुम न जाओ गायिका
ऐसे ही बस गाती रहो
जब तक मैं हूँ ।