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गीत नहीं, करुणा के कण हैं / रामगोपाल 'रुद्र'

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गीत नहीं, करुणा के कण हैं!

संचित फल, अब तक के तप के,
मेरे सघन गगन से टपके;
माटी जब भींगी तब जाना
मेरे प्रिय के द्रवित चरण हैं!

यह कभी कैसे कर्कश थे!
अहं-ह्वेष घोड़े सरकश थे;
कोड़े टूटे, लक्षण छूटे;
सहज सधे पद, सिंधु-प्रवण हैं!

कंठ भिंगा-भर दें ये सीकर,
रहे जागता पी-पी का स्वर;
यह भी तो है-है दान उन्हीं का!
मेरे दृग ही स्वाति-स्रवण हैं!