भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुमसुम रात में / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
गुमसुम रात में किसी तरह नींद आई थी
इस अचानक दौड़ती बौछार ने जगा दिया
कैसा दर्द दिल में उठा इस गाने से
कोई भी कष्ट हो वह जगा देता है
ऐसे ही चौंका कर
ऐसे ही बेचारी पलकों की मजेदार नीन्द
उचट जाया करती है
और आज तो ऐसे कि यह लगने लगा
सभी मेरे छोटे छोटे भोर
सभी कष्ट मेरे एक हैं।