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घोड़ानक्कास / लीलाधर मंडलोई

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घोड़ानक्कास से ज्यादा उदास है कोई जगह इस शहर में यहाँ
घोड़े इतने कम दिखने में कि मरे बहुत
और इस तरह घोड़ानक्कास मरा

जाने किस खटके में तहमदबाज भोपाली किस-किसकी तलाश में गायब
मौजूद इक्का-दुक्का तो कुछ ऐसे बेंतबाजों की तरह डोलते-घिघियाते
ढूँढते अपने पुराने कद्रदान
रिझाते याद दिलाते तांगे का नव्वाबी मजा

मुई राजधानी बाकायदा बड़ों के काबिल हुई
घोड़ानक्कास नये खटराग में जैसे भूल बैठा कव्वाली की नशीली रातें
भूला नमक में बोलती चाय का लुत्फ
जैसे बीत गयी घोड़े के टापों की पकीली लय करीब

फर्राटे भरते ऑटो-मिनी बसों के बीच
गयी वो मटरगश्तियां, वो फब्तियां गयीं
उठी पीतल की नक्काशीवाली वो दुकानें
पहियों को रंग रोशन करते वो लोग उठे
चली वो वार्निश की गंध चली और वो
हार्स पावर की इबारत कि जिसपे नाज हमें

नाल उतरी सी खड़े हैं घोड़े
ऊँघते बचे-खुचे से तहमदबाज
ले गया कैफ का मुहल्ला गया और
वे गुलियादाई की गली भी गयी

आखिरी सांसें हैं ये कल्चर की
अब वो अखलाक की दीवानगी कहाँ

नजर लग गई इसे जमाने की
संभलकर चलना यहाँ सड़कों पर
ठहरकर हँसना यहाँ सड़कों पर
काली छायाएँ डोलती हैं यहाँ, नया भोपाल है यह भाई मियां!!