चंद रोज़ और मिरी जान / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
चन्द रोज़ और मिरी जान फ़कत चन्द ही रोज़
ज़ुल्म की छांव में दम लेने पे मज़बूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास हैं माज़ूर हैं हम
जिस्म पर कैद है, जज़बात पे ज़ंजीरें हैं
फ़िक्र महबूस है, गुफ़तार पे ताज़ीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जीये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़लिस की कबा है जिस्में
हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सबर, कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं
अरसा-ए-दहर की झुलसी हुयी वीरानी में
हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों के बे-नाम गरांबार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है
ये तिरे हुस्न से लिपटी हुयी आलाम की गर्द
अपनी दो-रोज़ा जवानी की शिकसतों का शुमार
चांदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बे-सूद तड़प, जिस्म की मायूस पुकार
चन्द रोज़ और मिरी जान फ़कत चन्द ही रोज़