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चल सुबह की बात कर / रूपम झा

चल सुबह की बात कर

वो हमारी आंसुओं से बार-बार खेलता
हाथ पांव काटकर जमीन पर धकेलता
ढा रहा है मुद्दतों से हम सबों पर क्यों कहर

निकालना है आदमी को मजहबों के जाल से
देश हिल गया है पूंजीवाद के दलाल से
एक एक जोड़ कर कड़ी नई जमात कर

राजा जी तो आजकल हवा में सैर कर रहे
देश को वे लूटकर थैलियों में भर रहे
आफतें पड़ी यहाँ हमारी रोटी भात पर

अंधेरा हो गया बहुत सियासतों के स्याह से
जिंदगी तबाह है अंधेरी काली राह से
निकाल कोई आफताब रो न काली रात पर