भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चांदनी छत पे हो तेरा ख़त सिरहाने / ध्रुव गुप्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चांदनी छत पे हो तेरा ख़त सिरहाने
नींद उड़ जाएगी शायद इस बहाने

तुम भी आ जाते हमारे घर कभी तो
सौ दफ़ा हम ही गए तुमको मनाने

तुम कभी आओगे इतना है भरोसा
तुम मगर आओगे कितना कौन जाने

हम सभी हद तोड़ आए हैं तो क्या है
सोचकर क्या लोग होते हैं दीवाने

आप हो या मीर की कोई ग़ज़ल है
जब मिलूं तब दर्द उठते हैं पुराने

चल अभी खरगोश की आंखें तलाशें
दूर तक जगमग सितारों के ख़जाने

ख़्वाब सी दुनिया कभी होगी हमारी
खो गए इस सोच में कितने ज़माने

आसमां में कोई दरवाज़ा हो शायद
चल ख़ुदा को पांव के छाले दिखाने