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चिंतन की सिगड़ी पे प्रीत का भगौना / गिरीष बिल्लोरे 'मुकुल'


चिंतन की सिगड़ी पे प्रीत का भगौना
रख के फ़िर भूल गई, लेटी जा बिछौना

पल में घट भर जाते,
नयन नीर की गति से
हारतीं हैं किरनें अब -
आकुल मन की गति से.
चुनरी को चाबता, मन बनके मृग-छौना ?


बिसर गई जाते पल,
डिबिया भर काज़ल था
सौतन के डर से मन -
आज़ मोरा व्याकुल सा
माथे प्रियतम के न तिल न डिठौना ?


पीर हिय की- हरियाई
तपती इस धूप में
असुंअन जल सींचूं मैं
बिरहन के रूप में..!
बंद नयन देखूं,प्रिय मुख सलौना !!