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जन-रव / महेन्द्र भटनागर

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आलोकित विस्तृत जन पथ !
खड़े हुए विद्युत-गतिमय
युग के जिस पर नूतन रथ !
प्रस्तुत,
शक्ति सुसज्जित !
मन्वन्तर कर
नव संस्कृति निर्मिति हित।
प्रेरक स्वर
उन्मुक्त प्रखर अविजित,
गूँज रहा जन-रव
जन पथ पर जन-रव !

मानव —
दुर्दम इस्पाती अडिग सबल
चरणों के बल
क़दम-क़दम पर
दे नव-आवाहन

चीर रहा छाये
उच्छृंखल अर्थ-व्यवस्था के घन।
उपचार समाजी घावों का कर,
परिवर्तित आनन्दित
वसुधा को कर !
सुख-सम्पन्न सभी
धन-अन्न समस्त जनों को दे,
करने प्रतिपादित
नयी सभ्यता, दर्शन अभिनव।
जनयुग का
संयमित सबल जन-रव !