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जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे / ग़ालिब

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जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
जाँ कालबद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे

साये की तरह साथ फिरें सर्व-ओ-सनोबर
तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार म्वं आवे

तय नाज़-ए-गिराँमायगी-ए-अश्क बजा है
जब लख़्त-ए-जिगर दीदा-ए-ख़ूँबार में आवे

दे मुझको शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
कुछ तुझको मज़ा भी मेरे आज़ार में आवे

उस चश्म-ए-फ़ुसूँगर का अगर पाये इशारा
टूटी की तरह आईना गुफ़्तार में आवे

काँटों की ज़बाँ सूख गयी प्यास से या रब
इक आबलापा वादी-ए-पुरख़ार में आवे

मर जाऊँ न क्यों रश्क से जब वो तन-ए-नाज़ुक
आग़ोश-ए-ख़ाम-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुन्नार में आवे

ग़ारतगर-ए-नामूस न हो गर हवस-ए-ज़र
क्यों शाहिद-ए-गुल बाग़ से बाज़ार में आवे

तब चाक-ए-गिरेबाँ का मज़ा है दिल-ए-नादाँ
जब इक नफ़स उलझा हुआ हर तार में आवे

आतिशकदा है सीना मेरा राज़-ए-निहाँ से
दे वाये अगर म'अरिज़-ए-इज़्हार में आवे

गंजीना-ए-म'अनी का तलिस्म उसको समझिये
जो लफ़्ज़ की "ग़ालिब" मेरे अशार में आवे