भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन तो अनजान नहीं है / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
Kavita Kosh से
जीवन तो अनजान नहीं है
पर इसकी पहिचान नहीं है
पलकों पर पल तौल तौल कर
पल-पल को संचित कर जोड़ा
पलको के झटके में आकर
किस निष्ठुर ने इसको तोड़ा
नहीं जानता स्वयं और
मेरे सम्मुख भगवान नहीं है
बिछुड़े नहीं कभी यह मुझसे
मैं तो मन से चाह रहा हूँ
लिये लुकाठी किन्तु पुरानी
चुपके चुपके थाह रहा हूँ
मैं ही खुद मेहमान जगत का
जग मेरा मेहमान नहीं है
सुबह, शाम, मस्ती औ’ पीड़ा
सुख, दुख जो चाहे रह सकता
कोई नहीं पूछता मुझसे
और न मैं ही कुछ कह सकता
हूँ मकान का मालिक पर
यह मेरा असल मकान नहीं है।
बहुत खोजने पर न मिला है
किससे पूछूँ परिचय इसका
कब से इसने साथ लिया है
कौन कहेगा निश्चय इसका
होता है अवसान, किन्तु
सचमुच इसका अवसान नहीं है
जीवन तो अनजान नहीं है
पर इसकी पहचान नहीं है।