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तू कि अन्जान है इस शहर के आदाब समझ / फ़राज़

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तू कि अन्जान है इस शहर के आदाब<ref>ढंग ,शिष्टाचार</ref> समझ
फूल रोए तो उसे ख़ंद-ए-शादाब<ref>प्रफुल्ल मुस्कान</ref>समझ

कहीं आ जाए मयस्सर<ref>प्राप्य</ref> तो मुक़द्दर<ref>भाग्य</ref> तेरा
वरना आसूदगी-ए-दहर<ref>संतोष का युग</ref> को नायाब<ref>अप्राप्य</ref> समझ

हसरत-ए-गिरिया<ref>रोने की इच्छा</ref> में जो आग है अश्कों में नहीं
ख़ुश्क आँखों को मेरी चश्म-ए-बेआब<ref>बिना पानी की सरिता</ref> समझ

मौजे-दरिया<ref>नदी की लहर</ref> ही को आवारा-ए-सदशौक़<ref>कुमार्गी</ref> न कह
रेगे-साहिल<ref>तट की मिट्टी</ref> को भी लबे-तिश्ना-सैलाब<ref>बाढ़ के लिए तरसते हुए होंठ</ref> समझ

ये भी वा<ref>खुला हुआ</ref> है किसी मानूस<ref>परिचित</ref> किरन की ख़ातिर<ref>लिए</ref>
रोज़ने-दर<ref>द्वार का छिद्र</ref> को भी इक दीदा-ए-बेख़्वाब<ref>जागती आँख</ref> समझ

अब किसे साहिल-ए-उम्मीद<ref>आशा के तट</ref> से तकता है ‘फ़राज़’
वो जो इक कश्ती-ए-दिल थी उसे ग़र्क़ाब<ref>डूबी हुई</ref> समझ

शब्दार्थ
<references/>