दर्शनों के मेले में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
मेरे जीवन की बगिया में तुम आये हो ऐसे-
जैसे मरूथल में बसन्त का शुभ आगमन हुआ है ।
खुशियों के पाटल मुस्काने लगे, उल्लसित होकर ,
अंग-अंग में नव उमंग का चंदन महक उठा है ।
श्वास-श्वास है कोकिल-कोकिल मधुरिम राग सजाए,
भौरों का गुजार स्वस्ति मंगल-सा मधुर जगा है ।
महामिलन की मनोकामना है श्रृंगार सजाये,
आस-पास रहते हो लेकिन पास न अभी मिला है।
तोड आवरण सभी एक बस तेरी ही छवि देखूँ ।
अभिलाषा है यही भाव क्यों अब तक नहीं बना है ?
मन मन्दिर को करो प्रकाशित बनकर पावन दीपक,
यहाँ विकारों के तमिश्र का डेरा लगा पडा है ।
तोडों कपट कपाट बन्द जो उर मन्दिर को कराते,
विषय मकड़ियों नें मिल अब तक जाला बहुत बुना है।
तुम असीम हो मैं ससीम हूँ कैसे बाहर निकलूँ ?
सीमाओं में सभी तरह आबद्व विवेक गिरा है।
काले सेल मे धवल ज्योति की भाँति छिपे कण-कण में,
किन्तु दर्शनों के मेले में दर्शन मिल न सका है ।
उद्भव, पालन, प्रलय सभी के कारण ऐ तुम्ही हो,
मैं अज्ञान मूढ़ मन मेरा भव में फँसा रहा है ।
रहा देखते हुए बहुत युग बीत गये हैं प्रियतम !
विरह वेदना से पीडित मन तिल-तिल नित्य जला है ।