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दहकता गुलशन / राजीव रंजन

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हिमालय सा विश्वास आज
बालू की भीत सा भरक उठा।
सन्नाटे की थाप पर
कोलाहल थिरक उठा।
चेहरे पर लगे जख्म
देख दर्पण दरक उठा।
रोके कौन बहारों को
जब मौसम बहक उठा।
जज्बाती हवाओं से
बादल भी लहक उठा।
बरसते अंगारों से
गुलशन अपना दहक उठा।
घर में लगी ऐसी आग
देख पड़ोसी अपना चहक उठा।