भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिनकरकें सुत छी / एस. मनोज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दीप बनि-बनि जरब
तमकें प्रतिपल हरब
हम त दिनकरकें सुत छी
दिवाकर बनब।

अछि विषमता जतय
दुःखकें कारण बनल
ओतय समता ल झंडा
उठैबे करब।

जनकें परिचय जतय
जाति सँ, धर्म सँ
कर्मवादी व्यवस्था
बनैबे करब।

अछि जे पहरा पड़ैत
कोखि पर घोघ पर
ओ सभ पहराकें हम त
हटैबे करब।

जँ किसानी-मजूरी ल
आफैत पड़त
त हम सत्ता-व्यवस्था
हिलैबै करब।

घून लागल जतय
लोककें तंत्र मे
तंत्र लोकक सुनरका
बनैबे करब।