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दिल की बिसात क्या थी जो सर्फ़-ए-फ़ुगाँ रहा / 'शोला' अलीगढ़ी

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दिल की बिसात क्या थी जो सर्फ़-ए-फ़ुगाँ रहा
घर में ज़रा सी आग का कितना धुआँ रहा

शब भर ख़याल-ए-गेसू-ए-अम्बर-फिशाँ रहा
महका हुआ शमीम से सारा मकाँ रहा

क्या क्या न काविशों पे मिरी आसमाँ रहा
बिजली गिराई मुझ पे न जब आशियाँ रहा

महशर भी कोई दर्द है जो उठ के रह गया
शिकवा भी कोई ग़म है जो दिल में निहाँ रहा

ख़ुर्शीद आसमाँ पे रहा तू ज़मीं पे है
मीज़ान-ए-हुस्न में तेरा पल्ला गिराँ रहा

जीने में क्या मज़ा जो नहीं मौत का यकीं
मरने में लुत्फ़ क्या है जो वो बद-गुमाँ रहा

कसरत हिजाब-ए-दीदा-ए-आरिफ़ कभी नहीं
ज़र्रों में एक मेहर का जलवा अयाँ रहा

बीमार-ए-हिज्र मौत से उठ कर लिपट गया
वादे पे आया जब कोई तेरा गुमाँ रहा

दिल भी गया जिगर भी गया जान भी गई
मैं फिर भी देखता ही तिरी शोख़ियाँ रहा

ऐ ‘शोला’ क्या तबीअत-ए-नाज़ुक पे ज़ोर दूँ
क़द्र-ए-सुख़न रही न कोई क़द्र-दान रहा