खालीपन दौड़ता है पसलियों के बीच धड़कते नन्हे-से दिल में
दिन की रफ्तार रातों में घुलती चली जाती है
हर बार आशंकाएँ चील की तरह झपट्टा मारती हैं
हर बार छूट जाता है आदमी अपनी परछाईं के साथ
बिल्कुल अकेला
नमकीन रौशनी में चमकते थे जो लिपे-पुते चेहरे
अँधेरे के आँचल में सिर छुपाए देर तक सुबकते हैं
मृत्यु दिन-ब-दिन आसान हुई जाती है
बेकारों की टोली से कम होते जाते हैं कुछ चेहरे
जिंदगी मिट्टी का ढेला
शेयर बाजार का साँड़ हुंकारता है किसानों की हड्डियों में
कंप्यूटर की मंदी में अर्थहीन हो जाती है खाद की तेजी
जीवन भर थकहारकर कमाता है किसान एक मजबूत फंदा
बँधा था जो आस की रस्सी से, टूट जाता है वह
जिंदगी का रेला