दोहा / भाग 5 / विक्रमादित्य सिंह विक्रम
फौजदार कचनार किय, दिय पलास भट साज।
किय जुवराज रसाल कौ, इहि बसन्त महराज।।41।।
कुंज कुंज बिहरत बिपिन, गुंजत मधुप मदन्ध।
ललित लता लपटी तरुनि, प्रफुलित बलित सुगन्ध।।42।।
दिसि बिदिसनि सरितन सरनि, अवनि अकास अपार।
बन उपबन बेलिन बलित, ललित बसन्त बहार।।43।।
झिर पिचकारी की मची, आँधी उड़त गुलाल।
यह धूँधरि धँसि लीजिए, पकरि छबीले लाल।।44।।
मुख मीड़त अनखाति कति, करि करि टैढ़ी भौंह।
होरी मैं यों होत हैं, मेरी तेरी सौंह।।45।।
लै लै मूठ गुलाल की, घालत सबै समाज।
वह धालन औरै कछू, ज्यौं घालत ब्रजराज।।46।।
बर साइति है मिलन की, बरसाइत है लेखि।
पूजन बर साइत भली, बरसाइत चलि देखि।।47।।
पावस निसि कारी घटा, दामिनि दमकति जोर।
मोर सोर घन घोर, सुनि, चित चाहत चितचोर।।48।।
झीने झर झुकि झुकि झमकि, झलनि झाँपि झकझोर।
झुमड़ घुमड़ बरसत सघन, उमड़ि घुमड़ि घन घोर।।49।।
रंग हिंडोरे नवल तिय, झूलत दुति दरसात।
जनु अकास तैं दामिनी, छिति ह्वै आवत जात।।50।।