भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धीरे-धीरे उतर रही है मेरी संध्या-वेला / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
धीरे-धीरे उतर रही है मेरी संध्या-वेला
बीत गया दिन गाते-गाते
मधुर स्वरों के महल उठाते
श्रोता एक-एक कर जाते
उखड़ रहा है मेला
डूब रही है किरण सुनहरी
बढ़ी आ रही तम की लहरी
आगे एक गुफा है गहरी
जाना जहाँ अकेला
कल जो इस तट पर आयेगा
मेरा दर्द समझ पायेगा!
क्या कोई कल दुहरायेगा
यह गायन अलबेला?
धीरे-धीरे उतर रही है मेरी संध्या-वेला