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धूप की नन्हीं चिरइया आई भीतर / कुमार रवींद्र
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सखी, देखो
धूप की
नन्हीं चिरइया आई भीतर
हँसा रोशनदान
कमरा जग गया है
रोशनी के पंख फैलाये
दिखी बाहर हवा है
आँख खुलते-ही
हुआ दिन इन्द्रधनुषी
हमें छूकर
सलवटों में सेज की
सोनलपरी सोई हुई है
भूल ऐसी हुई रितु से
मिट गई सारी दुई है
देह में व्यापी
छुवन की
लहर मीठी है उमड़कर
हुई मिठबोली हवा भी
मोगरे की महक आई
इक अनंगी देवता की
छवि हृदय में है समाई
हुईं साँसें
शोख आतुर
जग रहे हैं गीत-आखर