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नया अदम कोई नई हदों का इंतिख़ाब अब / रियाज़ लतीफ़

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नया अदम कोई नई हदों का इंतिख़ाब अब
उतार लूँ मैं रूख़ से ये दवाम का नक़ाब अब

हम अपनी ज़िंदगी को ख़ुद से दूर ले के जाएँगे
कि फूटने ही वाला है ख़ला का ये हबाब अब

जनम न ले सके तिरे भँवर की आँख में तो क्या
हम और पानियों में ढूँड लेंगे इक सराब अब

सदा सुकूत जो भी चाहिए उठा ले इस घड़ी
मैं बद कर रहा हूँ ऐसे मरहलों के बाब अब

जहाँ है जो कहाँ है वो जहाँ नहीं है सब वहीं
तराशने लगा हूँ किस तिलिस्म से मैं ख़्वाब अब

जहाँ है अक्स का खंडर उमड पड़े हैं सब उधर
‘रियाज़’ हो रहा है तेरा आइना ख़राब अब