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निर्विवेक / सियाराम शरण गुप्त

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संतुष्ट आक पर नित्य रहो सहर्ष,
हे ग्रीष्म, संतत करो उसका प्रकर्ष।
है कौन हेतु, पर हो कर जो कराल,
हो नष्ट भ्रष्ट करते तुम थे तमाल