भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नींद आती नहीं है, ये क्या हो गया / ललित मोहन त्रिवेदी
Kavita Kosh से
नींद आती नहीं है, ये क्या हो गया ?
रात जाती नहीं है, ये क्या हो गया ?
प्रेम हो या कि हो हादसा आँख अब !
छलछलाती नहीं है, ये क्या हो गया !!
अब किसी भी चरण पर कोई आस्था !
सर झुकाती नहीं है, ये क्या हो गया !!
वैसे कहने को तो रातरानी है ये !
गमगमाती नहीं है, ये क्या हो गया !!
हम ने पायल गढ़ाई ग़ज़ल बेच कर !
छनछनाती नहीं है, ये क्या हो गया !!
मीर की हो ग़ज़ल या कि दुष्यंत की !
गुदगुदाती नहीं है, ये क्या हो गया !!
खिलखिलाती नहीं ज़िन्दगी सब्र था !
मुस्कुराती नहीं है, ये क्या हो गया !!
अपनी तारीफ़ है और अपनी ज़ुबां !
थरथराती नहीं है, ये क्या हो गया !!