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नेह-निछाउर / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'

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नेह निछाउर कहीं न बरसे धधके रेसा डाही।
नोचे पकड़ हँसोते हरदम मिल के करे तबाही॥
हर मौसम में करे तगादा जबरन करे उगाही।
बनिया भागल छोड़ घरौंदा पावे कहाँ गवाही॥
घर के रिस्ता टूट रहल हे सिसक रहल मन-ममता।
नेह-मेघ बरसे नँ कहियो फइलल विसम विसमता॥
सैतिन उदवासे धर थूरे काने रोज वियाही।
कपड़ा लुग्गा खाना में भी मरदा करे मनाही॥
टेरे करे गोहार हार के केऊ कहाँ अकाने।
निमरा के निरमोही दुनिया कहिया कहाँ गदाने॥
सास-ससुर पति के सेवा में पुतहू जिया चुरावे।
बेटी जइसन नेह मिले तो सब के दिल हुलसावे॥
सब पुतहू के मारे सगरो सास ससुर पति मिलके।
केकरा से ऊ मरम बतावे दुखिया अप्पन दिल के॥
दे रहलइ हे घर में बेटा माय-बाप के गारी।
ढहल आज वीरान पड़ल हे खँड़हर प्रेम-अटारी॥
इज्जत सिसक रहल खतरा में नेह पड़ल साँसत में।
बदल गेल जिनगी के सूरत ई सँउसे भारत में॥
ई समाज ढाँचा के ठठरी टूटल औ भाँगल हे।
बिन पतवार चरित के नैया हावा में टाँगल हे॥
मेल जोल भाईचारा में दम्भ द्वेस के काँटा।
लगा रहल सबके चेहरा पर छल के जब्बड़ चाँटा॥
जीना भी दुसवार भेल हे नेह-सरोवर सूखल।
उजड़ल मड़ई में कँगला अब कान रहल हे भूखल॥
दान कहाँ दानी भी उपहल हर कोना से जग में।
डेग-डेग बटमार भिड़ल हे राकस बन के मग में॥
दुराचार आचार बनल हे कहीं न हे अपनापन।
नफरत के संसार बसल हे मन में हे मैलापन॥
ननदी भी उदवास मचावे निसिदिन मारे ताना।
जहर पियावे ला धमकावे टेढ़ बनल हे बाना॥
जिनगी के जंगल सन बीहड़ नियम इहाँ उझरायल।
गौना के औसर से ही हे मन-मन्दिर मुरझायल॥
पढ़ के बेटा बनल बड़ा जब आफिस के अधिकारी।
माय-बाप के नैं पहचाने रुतवा में सरकारी॥
सीढ़ी लेखा मान रहल ऊ माय-बाप के बढ़ के।
छोड़ फेंक देलक सीढ़ी के मंजिल पर जा चढ़ के॥
भीख माँग जे बाप पढ़ौलक दर दर खा के ठोकर।
ओकर बेटा समझ रहल अब मिलल मँगनिया नौकर॥
गोतनी नैं गोतनी के पूछे देवर नैं भौजी के।
कौन पढ़ावे सीख सिखावे बहकल मनमौजी के॥
विधवा के अँखिया से ढरके रोज लोर के मोती।
दुख के धहबा से फूटे नित उफनल तातल सोती॥
बनल अभागिन ढनकल काँपे कटल फेंड के लेखा।
कौन मिटावे विधि लिख देलन जे लिलरा में रेखा॥