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पल / जीवनानंद दास / मीता दास
Kavita Kosh से
आसमान पर छिटकी हुई है चान्दनी... और जँगल के पथ पर है
चीता बाघ की देह गन्ध; और मेरा हृदय हो जैसे एक हिरण;
रात की इस नीरवता में मैं यह किस ओर चल रहा हूँ !
रुपहले पत्तों की छाया पड़ रही है मेरी देह पर,
कहीं भी और कोई हिरण नहीं मेरे सिवाय,
जितनी भी दूरी तय करता हूँ दिखता है मुझे सिर्फ़
हँसिये-सा टेढ़ा चाँद
आख़िरकार लगता है जैसे सुनहले हिरणों ने
सारी फ़सल काट ली हो;
तत्पश्चात धीरे-धीरे चान्द डूब रहा हो जैसे
शत-शत मृगों की आँखों में नीन्द की भाँति अन्धकार।