भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पस्तियों में खो गया है आदमी / रविकांत अनमोल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पस्तियों में खो गया है आदमी
कितना छोटा हो गया है आदमी

सरहदों में बाँट कर संसार को
ज़ह्‌र इसमें बो गया है आदमी

हर क़दम इक मसअला दर पेश है
मसअलों में खो गया है आदमी

आदमी इंसां नहीं जब हो सका
जाने क्या-क्या हो गया है आदमी

इसलिये हैवानियत का ज़ोर है
आदमी में सो गया है आदमी

आदमी की दस्तरस है दूर तक
दूर तक यारो गया है आदमी

याद-ए-यार-ए-मह्‌रबां आई है जब
बादलों सा रो गया है आदमी

जब कभी जागा ज़मीर इसका तो फिर
दाग़ सारे धो गया है आदमी

लौट कर आना पड़ा उसको यहीं
आसमां पर जो गया है आदमी