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पहाड़ी के इस पार / कल्पना सिंह-चिटनिस
Kavita Kosh से
फिर वही नीले फूल,
नीले फूलों की घाटियों में रहने वाले
नीले लोग,
बहता जहर नदियों के साथ
पीते लोग
और एक सन्नाटा!
ढोलक की थाप और गीतों की गूँज पर
जिंदगी की लय को भूलते लोग
चिहुंक पड़ते हैं जब-तब,
जैसे उतरती चली गई हों उनमें गहरे तक
किसी आदमभक्षी पेड़ की सर्पीली शाखें
जड़ों की तरह,
फिर मौन,
एक गहन मौन,
चाँद कसैला हो गया है इस घाटी में,
जाने कबसे रोशनी नहीं पी,
अग्निपिंडों से अधर लिए पड़े हैं लोग,
और टंगी आँखें आसमान की तरफ
ध्रुव-तारा यहीं था कहीं।