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पाचवाँ पुष्प / शिक्षा एवं स्वास्थ्य मंत्री से भेंट / आदर्श

खाद्य और जल मंत्री
कमल के कक्ष से
थोड़ा ही आगे
सूर्यमुखी और कवि बढ़े थे,
तभी सुन्दर सद्भावना की
शीतल सुगन्ध से
बोझिल सा झोका एक
मन्द-मन्द माहत का आया
कुछ और आगे बढ़े,
सुन्दर प्रपात एक मिला
किसी प्रतिभामय व्यक्ति की
प्रशंसा गीत सा गाता हुआ,
आस पास पक्षियों की
चहचह थी मची।

एक-एक कदम ज्यों ज्यों
आगे पड़ता था
त्यों-त्यों
चित्त में निराली शान्ति
आप धँसी आ रही थी,
कवि को न भेद यह
आया कुछ समझ में।

देवि! यह बात क्या है?
पुष्पनगर का
यह कितना धन्य मार्ग है।
मिलता है
विलक्षण विश्राम मुझको यहाँ
कहाँ चल रही हो?

वह कौन है महान व्यक्ति
जिसके मिलने के पहले
पा रहा हूँ इतना सुख
जितना नहीं पा सका हूँ
अभी कहीं भी यहां“

सूर्यमुखी बोली
”बोली! अब चलती हूँ मैं
शिक्षा और स्वास्थ्य मन्त्री
श्री अशोक पास,

जहाँ जीवन का प्रकाश सच्चा
आप को मिलेगा, और
यात्रा यह आप की
प्राप्त कर लेगी
वह कुंजी सफलता की
जिससे ही रहस्य सब ज्ञान के
बंद पड़े ताले में
आप खुल जायेंगे।

देखिए, अब आया
वह उपवन
और सामने ही
थोड़ी दूर पर
खड़े हैं अशोक वृक्ष
एक बड़ी पंक्ति में
इनकी ही डाल पर
सुन्दर लहरदार
हरी-हरी पत्तियों के बीच में
शोभा पा रहे हैं
वे अशोक पुष्प,
जिनसे ही हमको है मिलना।
यह कह सूर्यमुखी
शांत हुई
कवि ने भी धारण की मौनता।

थोड़ी ही देर में
गति शील पाँवों ने
पहुँचाया उनको
अशोक पुष्प के सामने
सुन्दर स्वरूप देख
भावमग्न हुआ कवि
श्रद्धा की उमंग
लहरायी हृदय में
नत शिर हो गया
सहज ही, और फिर बोला-

हे पुष्पेश्वर अशोक!
मिला दर्शन शुभ आपका
मैं हुआ कृतार्थ,
कुछ सुनना अब चाहता हूँ
गूढ़ बातें, जीवन के
निर्मल प्रवाह में,
जिन्हें जान कर के
उबरे डूबा हुआ मानव।

मैं अशांत होकर चला
मानवों के लोक से
सूर्यमुखी देवी ने
कर के असीम कृपा
मुझको मिलाया
पुष्पनगर अधिकारियों से
बना इनका ही अनुगामी
यहां आया हूँ।

आपका महान यश
यहीं नहीं मैंने सुना
मानवों के लोक में भी
ख्याति बढ़ी आपकी।

कौन नहीं जानता कि
आप की छाया में बैठ
पायी शान्ति सीता ने
जिनको महान अन्यायी, क्रूर
रावण ने
बंदिनी बनाया और
आप की छाया तले
जा कर रखा मूर्ख ने
भूल कर
आप के प्रभाव और
शान्ति भरे भाव को।

साधक को शक्ति देती
चैत्र शुक्ला अष्टमी ज्यों
और सुख देती है
मानव को
फाल्गुन की पूर्णिमा
त्यों ही आप
विश्व के विकाश को बढ़ाते हैं
जीवन की शुष्कता का
नाश कर
उसमें वसंत की
उमंग नयी लाते हैं।

आपकी सेवा में लगी
रहती जो पत्तियां हैं,
शोभामयी, लहरदार
वे भी तो मानवों के
घर के दरवाजे पर
लिये संदेश मंगलमय,
संगठित होकर दिव्य
बंदनवार में
दिखलायी पड़ीं।

जहाँ नहीं जा सकीं वे
वहीं पर दुर्भाग्य का
निवास माना गया,
और जहाँ आप पहुँच जाय
वहां का क्या कहना।
और मौर्य वंश का
यशस्वी सम्राट वह
दो हजार वर्षों के
बीत जाने पर भी
जो आज भी हमारे
इतना करीब लगता।

जिसने महान बुद्ध
के प्रकाश दीपक को
सारे विश्व में किया
प्रेम से प्रसारित,
जिसकी अनमोल शिक्षाएँ
लिखी मिलती हैं
स्तम्भों पर
और शिला पट्टों पर
वही राज राजेश्वर
जिसका अशोक शुभ नाम था।
शोक से विहीन हुआ
यह तो सब जानते हैं
किन्तु कम जानते हैं
कैसे वह
हिंसा का पुजारी
महाक्रूर शासक
होकर अशोक
बना शान्ति का उपासक।

क्या यह आवश्यक है-
विश्व को बताया जाय,
एक दिन
कर के कलिंग विजय
रक्तपात दृश्यों से
होकर के विचलित
आप ही की छाया तले बैठे थे
और जिन युवकों
आप ही के ऐसा खिल खिल कर
जीवन का, विश्व का
बनना था अलंकार,
तलवार की भेंट उन्हें
देख दम तोड़ते,
अन्याय, अत्याचार से विचलित
सोचने लगे थे
कौन सा मार्ग होगा श्रेयस्कर?

बोधि वृक्ष ने दिया था
बुद्ध को प्रकाश
और तुमने दी ज्योति
उस योद्धा सम्राट को,
जिसके प्रभाव से
रक्तपात भूल कर
हो गया प्रचारक वह शांति का।

इसे सब जानते हैं
मैं भी पहचानता हूँ
तुममें जो अपार शक्ति
भरी है, मनुष्य को
आत्म स्थिति करने की
शिक्षा और स्वास्थ्य की
व्यवस्था में प्रवीण
तुम युग युग से
मानव को
चेतना से चौकस
बनाते चले आ रहे हो।

शरण में तुम्हारी आज
मैं भी आ गया हूँ
अब मुझ पर कृपा कर
बतलाओ कैसी मिले शिक्षा
जिससे शांति विश्व में
निवास करे सुख से
और मानव चैतन्य हो
लग जाय पालन में
अपने कर्तव्यों के।

कवि के उदगारों से
चकित हो सूर्यमुखी
उसके चेहरे और
दृष्टि किए, रही
बातें सब सुनती,
हालत देख दोनों की
प्रेम के प्रभाव से
प्रफुल्ल होकर
हलकी मुसकान साथ बोले वे-

”देवि सूर्यमुखी और
मानव कवि श्रेष्ठ सुनो,
मैं हूँ जड़ पुष्प मात्र
मुझमें सामर्थ कहाँ
मैं प्रकाश दूँ अशोक जैसे ज्ञानवान को
मुझमें नहीं है शक्ति
कर पाऊँ
आप का, या
सूर्यमुखी देवी का समाधान
यह सच है, फिर भी
मैंने देखा है,
अपनी ही छाया में
चिन्ता में मग्न उस तेजस्वी सम्राट को।

पंचशील का विधान
जिसने दिया विश्व को
जिसने ज्ञान गणपति का, बुद्ध का
प्रचारित किया घर घर।

हिंसा मत करो,
मत भाषण असत्य करो
चोरी का त्याग करो
पालो नियम शरीर स्वास्थता के
और मादक जो द्रव्य है
त्याग करो उनका-

इन उपदेशों का व्यवहार
जिसने कराया
व्यक्ति व्यक्ति से
और राष्ट्र राष्ट्र से
वहीं गुरु जग का
वहीं है समर्थ
बतलाये फिर आकर
कैसी हो शिक्षा?
इस युग के मानव की
और किस प्रकार स्वास्थ्य
मानव का रक्षित हो?

किन्तु उस ज्ञानी और सिद्ध से
ज्ञान परम्परागत
मिला है जो मुझको
वही मैं कहता हूँ
ध्यान दे कर सुनो।

शिक्षा वह तत्व है
जिससे जहां हो
अंधकार घना
वहां भी प्रकाश हो।

उससे सब उन्नति की
नित्य प्रेरणाएं मिले
प्रगति की,
केवल पशुओं की तरह
जीवन चलाये नहीं,
खाकर मर जाये नहीं
ऐसा कुछ काम करे
लाभ हो स्वदेश का ही नहीं
इस सारे विश्व के
मानवों का, प्राणियों का
कल्याण हो।

खेद है,
वैसी शिक्षा की ओर
ध्यान अब
किसी का भी है नहीं।

मानव अधिकाधिक
पशुता की ओर
ढला जा रहा है,
सच्ची मानवता की

ज्योति नहीं पाता वह
और बिना उसके
सूखता ही जा रहा है
जैसे सूख जाता है
बिना पानी मिले, उगा
नया, नया पौधा।

एक बात कहना मैं चाहता हूँ,
किन्तु कहने के पहले
सूर्यमुखी देवी से
प्रश्न है-
क्या वे मुझे क्षमा दान
कृपाकर कर देंगी?

यदि मैं यह कहूँ,
आज नारी ने बिगाड़ दिया
मानव का संतुलन
ज्ञान बन गया है
केवल अर्थ साधन।

नारी ने मानव को
विवश बनाया है कि
उच्च स्तर वाला ज्ञान
त्याग कर
निम्न स्तर वाले
ज्ञान का ही
वह पुजारी बने।

यह कह अशोक पुष्प
भाव जानने के लिए
सूर्यमुखी मन का
मौन रहे थोड़ी देर,

इस बीच सूर्यमुखी
नारी समाज पर
दोषारोपण सुन कर
अपने विचार
व्यक्त करने लगी शान्ति से।

”सभी जानते हैं संसार में
अन्याय कभी होता नहीं
आप से, अशोक भाई!
फिर यह कैसी
उलटी सी
बात देखती हूँ
आप में,
और यह कैसी है विडम्बना।
ऊपर से
आप क्षमा माँगते हैं!

अपनाया आपने
बड़ी दक्षता के साथ
ढंग यह आधुनिक!
आप को बधाई
दे रही हूँ इसके लिए।

मानव का संतुलन
नहीं बिगड़ा है कभी
नारी के द्वारा
उसको तो बिगाड़ा है
पुरुषों को
वासना की प्यास ने।

ज्ञान का भी
स्तर यदि उतरा है
तो है वही
इसकी भी उत्तरदायिनी।

छोड़ यशोधरा को
जब बुद्ध थे बिरागी बने
करते कठिन तप ऊंचे ज्ञान के लिए
काननों में जाकर,
बाधा कौन उनको
यशोधरा से थी मिली?

आज भी सुबुद्धि वाले
ऊंचे ज्ञान लालसा से
करें सच्चा तप तो
नारी कहाँ बाधा डालने को
वहाँ जाती है?

पुरुष यदि अपना मन सच्चा करे
नारी कभी भूल कर
पास नहीं जायेगी,
किन्तु यदि उसका मन
कच्चा है, तो
नारी के अभाव में भी
नारी के नाम पर
बाधाएँ हजारों, लाखों
आप पहुँच जायेंगी।

मैं तो यह आप से
सुनने की आशा किये बैठी थी कि
पुरुष ने नारी को
अपनी नीच कामनाएँ
पूरी करने के लिए

कहीं तो पिंजड़े में
बन्द कर रक्खा है-जिसमें कैद होकर
वह उसका भार
और भी बढ़ाती है,-

और कहीं नाचना सिखाया है
जैसे मदारी
बन्दरों को सिखलाता है
रोटी और कपड़े पर
बिकी सी
हयादार, बेहया दोनों वह बनती है।

पुरुष के अत्याचार का
यह नतीजा है,
नारी नहीं पाती अपना विकास
वह घुल-घुल कर मरती है
और डूबती हुई
अपने साथ
पुरुष को भी ले डूबती है।“

यह कह कर
मौन हुई सूर्यमुखी
कविवर तब उसके
समर्थन में बोले यों-

”मेरी श्रद्धा के पात्र
श्री अशोक पुष्प सुनो
जैसी भी परिस्थिति है
उसमें हो सकता नहीं
दोष कभी एक का
पुरुष में, किन्तु, है

पराक्रम की शक्ति की अधिकता
उससे ही वह
कभी पशुता की ओर ढल कर
गिरता है और नारी को भी
गिरा देता है।

दीजिए, प्रकाश, जिसे पाकर
नर और नारी-
दोनों हों विकसित
और, आगे जो
आवें नयी पीढ़ियाँ
पावें संसार को
सुरम्य और सुन्दर।

मीठी मुसकान साथ
उत्तर दिया अशोक पुष्प ने-
”सूर्यमुखी देवी और सत्य खोजी कविवर!
नारी को दोष देना
इष्ट नहीं मुझको

किन्तु यदि नर में
उदारता नहीं है शेष,
यदि आज उसमें है द्वेष,
हिंसा की भावना, तो
नारी पर ही है
सदा दायित्व इसका
क्योंकि वह माता है
रूप वही देती क्षण क्षण पर
परिवर्तनशील इस जग को।

इससे ही कहता हूँ
शिक्षा का पहला
उद्देश्य होना चाहिए
परित्राण नारी का-
संकुचित हुई दिखलाती जो आज
एक मात्र प्रेयसी के रूप में,
याद है दिलानी उसे
उसके मातृत्व की।

आज विद्यालय और विश्वविद्यालय जो
चलते हैं देश में,
माता रूप नारी का
करते नहीं विकसित-
वह रूप
जिसमें है त्याग
और कोमल अहिंसा,
सेवा भाव का विकास
वहाँ लक्ष्य है नहीं।

इससे ही ज्ञान का
पवित्र क्षेत्र हो गया कलुषित
और व्यवसाय बढ़ा
वहाँ उन लोगों का
स्वार्थ के लिए जो
प्राण औरों का लेते हैं।

अपना और अपने ही मित्रों का
सुख ही प्रधान हुआ,
चाहे नाश देश का हो
और ही समाज
दुखी कितना ही।

मातृ भावना का
यदि होगा नहीं जागरण
सेवा का भाव उदय
कभी हो सकेगा नहीं,
और यह स्वार्थ भूख
बढ़ती ही जायेगी,
प्रचंड आग
प्रज्वलित होगी वह
जिसमें देश का भविष्य सब
जलकर होगा राख।
ऐसी दशा में
साँचा ही बदलना है
शिक्षा का, ज्ञान के प्रचार का।

नारी जिस ओर
जा रही है, उस ओर से
फेरो उसे पहले,
जानती नहीं है यदि
उसे समझाना है,
जैसे बने अपने लक्ष्य पर
उसे फिर लाना है।

पंचशील नियमों का
निर्वाह करके वह
जन्म देगी ऐसी पीढ़ियों को
जो सरस्वती के मंदिर
व्यवसाय, लोभ और
शोषण का विचार लेकर
कभी नहीं जायेंगे।

आयेंगी ऐसी जब पीढ़ियाँ,
अट्टालिकाओं की
ऊँची तनख्वाह वाले
अध्यापकों की,
कमर तोड़ फीसों की,
गलाकाट फाइनों की
जरूरत होगी नहीं
विद्यार्थी पेड़ के तले ही,
त्यागमूर्ति अपने अध्यापकों से
प्रेम के साथ
पढ़ लेंगे पाठ अपना।

झूठ, जाल, छल, अहंभाव
सहज ही नष्ट होंगे,
जागेगी एक एक व्यक्ति में
शुभ भावना कर्तव्यों के
पालन की।

ज्ञान गृह शुद्ध जब होगा
तभी गन्दगी मिटेगी
और स्वच्छ शिक्षा पाने पर
अच्छे भाव जागेंगे,
वाणी होगी विमल
और आचरण निर्दोष।
सच्चा स्वास्थ्य व्यक्ति का, समाज का
तभी होगा संभव।

यह कह कर मौन हुए
श्री अशोक पुष्प जब
कविवर ने कहा-
”सत्य कहना है आप का
देखता हूँ विश्व के जीवन में
मातृ भाव का प्रचार
दिनों दिन मिटता ही जा रहा।

माता का स्थान अब
ले रही है प्रेयसी
और उसके कटाक्षपात से ही
घायल हो
सभ्य और सभ्येतर ढंग के
चोरी और डाके
बढ़े जा रहे हैं
धन की कमाई पर
बंगले और मोटर खरीदने को।

आपने साधन
ठीक ही बतलाया है
इसका प्रचार
मैं करूंगा खूब जाकर
मानवों के लोक में।“

कविवर की बात के समाप्त होते
सूर्यमुखी ने कहा-
”हे अशोक बन्धु!
कैसे अस्वीकार करूं जब
कोई बात उसमें
विरोध योग्य है नहीं।

श्रद्धा समेत करके नमस्कार तब
दोनों वहाँ से चले।