भारत में प्रेम एक घटिया शब्द
बनाया जा चुका है। और रहेगा।
इसे ही मुंबई का सिनेमा कहता है ‘प्यार’
रही सही कसर सस्ते उपन्यास-सम्राटों ने पूरी कर दी है।
स्थिति यह है कि अब प्रेम करने वाले भी प्रेमी कहलाने से डरते हैं।
पर विडम्बना देखिए
गाहे-बगाहे हमें भी
पूरी गंभीरता से करना पड़ता है
इसी शब्द का इस्तेमाल।
और तब हम भीतर से प्रेम को लेकर उतने चितिंत नहीं होते
जितने होते हैं इसके दु:खद पर्यायवाची से:
कुछ खास-खास मौकों पर
हूबहू प्रेमी की तरह दिखते हुए ‘प्यार’ शब्द से डरते ,
भीतर से पर
महज
कवि रहते ।