भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्यार की तलवार / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्यार की तलवार ले कर
वार यिद मुझ पर करो तुम,
मैं तुम्हारे सामने-
गरदन झुका दूँगा स्वयं ही॥1॥

प्यार की जल-धार से
काटो अगर तट-बाहु मेरे,
स्पर्श पाते ही भुजाएं
मैं बढ़ा दूँगा स्वयं ही॥2॥

पर उठाओगे कहीं तुम
प्यार की तलवार मुझ पर
तो करिश्मा मैं उसी का
भी दिखा दूँगा तुम्हें ही॥3॥

मानता यद्यपि न शूरों
की इसे मैं शूरता हूँ;
मानता केवल उसे मैं
कायरों की क्रूरता हूँ॥4॥

मार का हथियार लेकर
जो चला हैवान है वह;
प्यार का हथियार लेकर
जो चला इंसान है वह॥5॥

इसलिए तुम मार की-
तलवार तो नीचे झुकाओ;
प्यार की तलवार की ही
तुम ध्वजा ऊपर उठाओ॥6॥

देख ले दुनिया-न अब भी
प्यार की कोई कमी है;
आदमी की आँख में अब
भी बची काफी नमी है॥7॥

आदमी में आदमी अब
भी बहुत जिन्दा बचा है;
प्यार की तलवार ही उस
की सही सरगम-ऋचा है॥8॥

वस्तुतः तो आदमी की
बस यही पहचान ही है;
प्यार की तलवार के-
आगे झुका भगवान भी है॥9॥

16.6.92