प्रतीक्षित स्त्रियाँ / हर्षिता पंचारिया
कितनी निष्ठुर हो गई हो तुम!
तुम्हें नहीं लगता कि
तुम्हें ओढ़ लेना चाहिए समय का लबादा!
और छुप जाना चाहिए
किसी घुप्प अंधेरे बियाबान में!
असंख्य बजबजाते हुए कीड़े जब तुम पर रेंगेंगे तो,
अपनी देह से निकाल फेंकना प्रेम की
वह तमाम स्मृतियाँ
जिनके समक्ष स्वयं को धिक्कार भी नहीं सकती।
अब बचा ही क्या है तुम्हारे पास!
जो लौटे?
उम्र, समय, यौवन सब तो रीत गया,
बस नहीं रीता तो ये एकांत का मौसम
तुमसे तो पतझड़ ही अच्छा है
रीत जाने पर पुनः अंकुरण की उम्मीदें तो जगाता है।
पर यहाँ आँखों में,
सिवाय चुल्लू भर पानी के कुछ दिखाई भी तो नहीं देता।
अगर कुछ दिखाई देती है तो बस
भभकने भर के लिए आग।
पर वह तो जलाने के लिए बनी है ना
और तुम अपने हाथ सेंक रही हो।
उम्र के इस पड़ाव में और इस उम्मीद में कि,
अब भी कोई आएगा और इन हथेलियों को चूम कर
तुम्हारे आँखों में पल रहे सपनों को स्वतंत्र कर देगा।
पर जीवन में प्रतीक्षित स्त्रियाँ
स्वतंत्रता का "क, ख, ग" भी क्या जाने?
उनके लिए तो तस्वीरों की आहटें ही
पराधीनता की जिजीविषा में
"इच्छा मृत्यु" का स्रोत नहीं अपितु "जीवन इच्छा" है॥