भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ३

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रलम्ब आतंक-प्रसू, उपद्रवी।
अतीव मोटा यम-दीर्घ-दण्ड सा।
कराल आरक्तिम-नेत्रवान औ।
विषाक्त-फूत्कार-निकेत सर्प था॥41॥

विलोकते ही उसको वराह की।
विलोप होती वर-वीरता रही।
अधीर हो के बनता अ-शक्त था।
बड़ा-बली वज्र-शरीर केशरी॥42॥

असह्य होतीं तरु-वृन्द को सदा।
विषाक्त-साँसें दल दग्ध-कारिणी।
विचूर्ण होती बहुश: शिला रहीं।
कठोर-उद्बन्धान-सर्प-गात्र से॥43॥

अनेक कीड़े खग औ मृगादि भी।
विदग्ध होते नित थे पतंग से।
भयंकरी प्राणि-समूह-ध्वंसिनी।
महादुरात्मा अहि-कोप-वह्नि थी॥44॥

अगम्य कान्तार गिरीन्द्र खोह में।
निवास प्राय: करता भुजंग था।
परन्तु आता वह था कभी-कभी।
यहाँ बुभुक्षा-वश उग्र-वेग से॥45॥

विराजता सम्मुख जो सु-वृक्ष है।
बड़े-अनूठे जिसके प्रसून हैं।
प्रफुल्ल बैठे दिवसेक श्याम थे।
तले इसी पादप के स-मण्डली॥46॥

दिनेश ऊँचा वर-व्योम मध्य हो।
वनस्थली को करता प्रदीप्त था।
इतस्तत: थे बहु गोप घूमते।
असंख्य-गायें चरती समोद थीं॥47॥

इसी अनूठे-अनुकूल-काल में।
अपार-कोलाहल आर्त-नाद से।
मुकुन्द की शान्ति हुई विदूरिता।
स-मण्डली वे शश-व्यस्त हो गये॥48॥

विशाल जो है वट-वृक्ष सामने।
स्वयं उसी की गिरि-शृंग-स्पर्ध्दिनी।
समुच्च-शाखा पर श्याम जा चढ़े।
तुरन्त ही संयत औ सतर्क हो॥49।

उन्हें वहीं से दिखला पड़ा वही।
भयावना-सर्प दुरन्त-काल सा।
दिखा बड़ी निष्ठुरता विभीषिका।
मृगादि का जो करता विनाश था॥50॥

उसे लखे पा भय भाग थे रहे।
असंख्य-प्राणी वन में इतस्तत:।
गिरे हुए थे महि में अचेत हो।
समीप के गोप स-धेनू-मण्डली॥51॥

स्व-लोचनों से इस क्रूर-काण्ड को।
विलोक उत्तेजित श्याम हो गये।
तुरन्त आ, पादप-निम्न, दर्प से।
स-वेग दौड़े खल-सर्प ओर वे॥52॥

समीप जा के निज मंजु-वेणु को।
बजा उठे वे इस दिव्य-रीति से।
विमुग्ध होने जिससे लगा फणी।
अचेत-आभीर सचेत हो उठे॥53॥

मुहुर्मुहु: अद्भुत-वेणु-नाद से।
बना वशीभूत विमूढ़-सर्प को।
सु-कौशलों से वर-अस्त्र-शस्त्र से।
उसे वध नन्द नृपाल नन्द ने॥54॥

विचित्र है शक्ति मुकुन्द देव में।
प्रभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
सदैव होता जिससे सजीव है।
नितान्त-निर्जीव बना मनुष्य भी॥55॥

अचेत हो भू पर जो गिरे रहे।
उन्हीं सबों ने विविधा-सहायता।
अशंक की थी बलभद्र-बंधु की।
विनाश होता अवलोक व्याल का॥56॥

कई महीने तक थी पड़ी रही।
विशाल-काया उसकी वनान्त में।
विलोप पीछे यह चिह्न भी हुआ।
अघोपनामी उस क्रूर-सर्प का॥57॥

बड़ा-बली एक विशाल-अश्व था।
वनस्थली में अपमृत्यु-मुर्ति सा।
दुरन्तता से उसकी, निपीड़िता।
नितान्त होती पशु-मण्डली रही॥58॥

प्रमत्त हो, था जब अश्व दौड़ता।
प्रचंडता-साथ प्रभूत-वेग से।
अरण्य-भू थी तब भूरि-काँपती।
अतीव होती ध्वनित दिशा रही॥59॥

विनष्ट होते शतश: शशादि थे।
सु-पुष्ट-मोटे सुम के प्रहार से।
हुए पदाघात बलिष्ठ-अश्व का।
विदीर्ण होता वपु वारणादि का॥60॥