भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फुहारों में / सुरेश विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खेलने दो फुहारों में
अब हमें तो को नहीं माँ।

बहुत दिन की प्रतीक्षा के
बाद बादल बरसते हैं
साल भर तो इन फुहारों
के लिए हम तरसते हैं।

नाव काग़ज़ की चलाने दो
अब हमें टोको नहीं माँ।

गीत बूंदों का सुनाते
भीगते पत्ते हमें
आओ तो बाहर, बगीचे
झूमते कहते हमें।

झूमने दो कदम्बों पर
अब हमें टोको नहीं माँ।