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फूटती हैं कोपलें / अभिज्ञात
Kavita Kosh से
बार-बार
अपनी इबारतें बदलते-बदलते
मेरा मत
इतना घिस चुका है
कि
अंतिम खड़ा है
पहले के ही विरुद्ध।
हर चीज़ की शिनाख़्त ऐसे ही खोती है।
मेरी
शुबहाग्रस्त ईमानदार अभिव्यक्ति
अपनी क्रमिक आत्महत्या के बाद
एक ठूँठ है
जिस पर
अतिरिक्त अन्न खाकर
की हुए पक्षी की बीट से
फूटती हैं कोपलें।