भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फैसला छोड़िये / मनोज जैन 'मधुर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फैसला छोड़िए तीसरे के हाथ में,
आप पूरे नहीं
हम अधूरे नही।

मन की भाषा को पढ़ना
हमें आ गया,
क्या बचा फिर हमें सीखने के लिए।
हमनें जीता है पहले
स्वयं के लिए
शेष बचता है क्या जीतने के लिए।

तार कसते ही मन झनझनाने लगे
आपके हाथ के
हम तमूरे नहीं।

हमने सीखा नही जड़ से
कटना कभी
भार सबका उठाना हमें आ गया।
क़द के देवों को पूजा
नहीं आज तक
साथ गहराइयों का हमें भा गया।

ठोस आधार देते भवन के लिए
नींव की ईंट है हम
कँगूरे नहीं।

मन में अभिमान को कब
पनपने दिया।
निज के गौरव का हमने सम्हाला रतन।
हमको निन्दा प्रशंसा की
परवाह क्या
साधना का निरन्तर रहेगा जतन।

अर्थ विभ्रम के चक्कर में हम क्यों पड़े
स्वर्ण ही है खरे हम
धतूरे नहीं।

क्या है अच्छा बुरा
क्या हमारे लिए
भेद करना समय आके सिखला गया।
कर्म पथ में छिपी
मंज़िलों का पता
कोई तो है जो सपनो में दिखला गया।

बात मानेंगे हम क्यों बिना तर्क की
मन के उस्ताद है हम
जमूरे नहीं।