बतीसवें बरस की लड़की / मनीष यादव
ज्ञात हो तो बताइएगा
लड़की देखने जाने वालों के नेत्र में
कौन सा दर्पण होता है?
शिक्षा और गुण-अवगुण से पहले
रूप का सुडौलापन और रंग क्या सुनिश्चित करता है?
पिता ने तो पाई-पाई जोड़ कर पढ़ाया होगा
बिटिया को वैसे ग्रामीण परिवेश में!
सोचते होंगे किसी तरह कोई अच्छा घर परिवार मिल जाए
बिटिया के ब्याह के लिए.
शाम को खाना बनाते समय
रोज की दिनचर्या की भाँति पड़ोस की काकी पहुंच ही तो जाती है घर!
पिता तब रोटी का निवाला निगले
या उसे कहते हुए सुने –
“बत्तीस के हो गईल लड़िकिया हो रामा, न जाने कईसे होखी बियहवा ई छौड़ी के! भगवान पार लगईहें।”
पिता का मन कितना कौंध उठता होगा
अपनी डबडबायी आँखों को रोकते हुए
हर बार एक ही उत्तर देते हुए -
“रंग ही तो तनिक मधिम (साँवला) बा नु काकी,
बाकि कौना गुण के कमी बा बिटिया में”
ह्रदय के जल चुके कौन से कोने की राख़ को
अपनी पीड़ा पर मले है वो लड़की!
उसके भाग्य में तो रोने के लिए ख़ुद का बंद द्वार वाला
एक कमरा भी ना था।
देह या आत्मा दु:ख में कितना भी पसीझे!
बाग में उसके लगाये शीशम के पेड़ की तरह
उस बुद्धू लड़की की उम्मीदें भी अब सूख रही थीं
पिता किसी शुभ दिन आँगन में खाट पर बैठ
पंडित जी के बताए कुंडली में दोष को
विस्थापित करने का उपाय ढूँढते रहे!
उसी शुभ दिन माघी पूर्णिमा को
गंगा स्नान करने गई वह लड़की नहीं लौटती है घर
संभवत: कुछ गोते !
जीवन की तैराकी से
दूर भागने के लिए लगा दिये जाते हैं।