भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बदली परिभाषाएँ / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
समय आ गया लेकर
बदली-बदली परिभाषाएँ,
हमें चाहिए बढ़कर
उनको ओढ़ें और बिछाएँ।
पैसे पर बिककर
पैसे को गाली देना सीखें
तोड़ें सच से सरोकार
पर हरिश्चन्द-से दीखें
रोने वालों के सँग रोयें
खुशहालों सँग गायें।
धूल भरे अंधे शीशों में
कब दिख पाती नाकें,
चेहरे धो करके ही
औरों की आँखों में झांकें,
कल्प वृक्ष के तले
बाँधते रहें धेनु-इच्छायें।
कौन कह रहा है कि
शब्दों की सामर्थ्य घटी है,
सपने हुए अभाव
गरीबी कोसों दूर हटी है,
बातें-बातें बस बातें
विश्वासों तक पहुँचायें।