धनुष पर रख कर पैने बाण,
बनाया तुमने मुझे निशान।
पहनाए वसन्त ने आकार,
धरती को फूलों के शेखर,
बरसाए तुमने मुझ पर शर
खर अंगार समान।
मेरी ओर नयन-दर्पण कर,
मेरा उर-प्रतिविम्ब हरण कर,
खचित किया तुमने उसमें धर,
पर न सका मैं जान।
इतनी छोटी मेरी पुतली,
समा न पाती, तुमसे निकली-
छवि की जिसमें विभा सुनहली,
ज्योतिमयी मुसकान