Last modified on 29 अप्रैल 2017, at 21:15

बर्फ बिछी है रास्तों पर, रिश्तों पर / महेश सन्तोषी

किस कदर बर्फ बिछी है रास्तों पर
रिश्तों पर, छतों पर
कहीं बर्फ से तो नहीं बने हैं
इस शहर की इमारतें, इस शहर के घर?
आधा शहर बोलता नहीं है, आधा सुनता नहीं है,
वैसे यह शहर आधा गूंगों का, आधा बहरां का नहीं है।
अलग-अलग कीमतें हैं, बोलने, सुनने, चुप रहने की,
सम्वाद होते तो हैं, पूरी सम्वादहीनता नहीं है।
साफ-साफ सच बोलने की,
अब आदतें ही बाकी नहीं रहीं
सारा कारोबार ही चल रहा है,
दबी-दबी आवाज़ों पर।
किस कदर बर्फ बिछी है...

बीच में कहीं रुकना, ठहरना नहीं चाहतीं, बेतहाशा दौड़ती ज़िन्दगियाँ,
कहीं कोई रास्ते में छीन ना ले इनकी ऊर्जाएँ, इनकी स्फूर्तियाँ,
पीछे एक-एक कर ढह रहे हैं, बचे-खुचे सम्बन्धों के पुल,
आगे हर रोज उठ रही हैं, दीवारें, दिलों के दरमियाँ,
कोई किसी का हाथ थामे
अब रास्तों पर नहीं मिलता,
बस भीड़ ही भीड़ मिलती है,
दोराहों, चौराहों पर।
किस कदर बर्फ बिछी है...

एक अजीब सी जड़ता से जुड़ गयी है
हर जीती-जागती ज़िन्दगी,
सारी धड़कनें दिलों की सिर्फ खुद ही के लिए हैं
दूसरों के लिए धड़कनों की है बड़ी कमी।
संवेदनाएँ तक हो गयी हैं, एकदम शांत, सतही
किसी ने सरेआम में चुरा लिया है
लोगों की आँखों का पानी, आँखों की नमी।
देखते-देखते पत्थरों से हो गये हैं
ज्यादातर आदमियों के दिल,
ज्यादातर लोगों ने, अपने-अपने दिलों पर
रख लिए हैं पत्थर।

किस कदर बर्फ बिछी है रास्तों पर,
रिश्तों पर, छतों पर
कहीं बर्फ से तो नहीं बने हैं
इस शहर की इमारतें, इस शहर के घर?