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बसंत / बिंदु कुमारी
Kavita Kosh से
कोयल नेॅ पैलेॅ छै बसंती बयार।
बैठलोॅ छै डारी पर करी सोलहों सिंगार।।
लया-लया पत्ता आरो फूल खिलै बेजोड़।
देखी-देखी नाचै जंगलोॅ में मोर।।
झूलै छै डार-पात झूलै छै फूल।
विरहिन के बढलोॅ छै मनोॅ के शूल।।
कोयल नेॅ...
प्रेम, प्यार सबरोॅ दिलोॅ में बसै छै।
आबी देखोॅ संताल परगना में पराशो फूलै छै।।
चारो ओर गमकै छै महुआ, आम मंजरी।
फैलाबै छै सुगन्ध रातरानी, चंपा, चमेली।।
कोयल नेॅ...
बाट-बटोही लुभावै छै ई सब देखी।
गांवों के गोरी विहंसै छै मनोॅ केॅ रेखी।।
मटर आरो खेसाड़ी के छिमड़ी सेॅ करै छीं बात।
गोटा, तीसी, धनियाँ सेॅ करै छी झात।।
कोयल नेॅ...