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बादल अम्बर पे न धरती पे शजर है बाबा / नौ बहार साबिर

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बादल अम्बर पे न धरती पे शजर है बाबा
ज़िन्दगी धूप में सहरा का सफ़र है बाबा

तुम कहाँ आ गए शीशों की तमन्ना ले कर
ये तो इक संग-फ़रोशों का नगर है बाबा

हम हैं क़ैद-ए-दर-ओ-दीवार से आज़ाद हमें
जिस जगह रात गुज़ारी वही घर है बाबा

मन हो दरवेश तो फिर तन पे क़बा हो कि अबा
जोग बाना नहीं अन्दाज़-ए-नज़र है बाबा

बत्न हर संग में देखे जो कोई पैकर-ए-नाज़
किस को हासिल वो सनम-साज़-नज़र है बाबा

सोच कर दश्त-ए-तमन्ना में क़दम रख 'साबिर'
इस मरूथल में ब-हर-गाम ख़तर है बाबा