बाबा ! तुम रो रहे हो
राजनीति की कुचालों में
तुम्हारी दलित जनता
धक्के खाकर कुचली
भीड़-सी चीत्कार रही है
तुम सोच में हो
कुचली भीड़-सी जनता
अपना आकार ले रही है
उसके सोए भाव जाग रहे है
वह संगठित हो रही है
तुम हँस रहे हो
दबी-कुचली जनता
मिट्टी से उठना सीख गई है
फूल खिल रहे है चारों ओर
उठो ! यह भोर का आगाज़ है
हाँ, तुम हंस रहे हो, बाबा !