बोध की ठिठकन- 11 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
लोग मुझे सुनें
मेरे गीत गुनगुनाएँ
मेरी भी यही आकांक्षा है.
हृदय के आविर्भाव
मन की तरंगों में
रूप लेते हैं.
मेरी बोध-यात्रा
अभी अधूरी है
मेरी नींव की ईंटें
संभावना-द्वार की खोज में
दस्तकें अगोरती हैं
अपनी निजी पहचान की
पीड़ा लिए
कागज पर कुछ उकेरने की
अकुलाहट
सुगबुगाती है.
ऐसे में जो
मेरी पंक्तियों में ढरकता है
उसके शब्द-संदर्भ
लड़खड़ाते हैं
अर्थ-संहतियाँ
सहजता खोजती हैं
मैं बोझ के नीचे दब जाता हूँ.
निरंतर मेरी कोशिश है
मेरे होने से निचुड़ा रस
जिसमें मेरा सबकुछ प्रविष्ट है
मेरे अस्तित्व से छलक कर
बहे.
लोग उसे सुनें, पिएँ भी
मगर लोगों को सुनाने के लिए
लोगों की तरंगों में
मैं गाने को तैयार नहीं
मेरी अपनी ही तरंगें
मेरे बोध का साक्षी हो सकेंगीं
मैं अपनी तरंगों में
अपनी खिलावट बिखेरूँगा