भक्त-मर्यादा-रक्षण(राग आसावरी)/ तुलसीदास
भक्त-मर्यादा-रक्षण(राग आसावरी)
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कहा भयो कपट जुआ जौं हौं हारी।
समर धीर महाबीर पाँच पति
क्यों दैहैं मोहि होन उधारी।।
राज समाज सभासद समरथ,
भीषन द्रोन धर्म धुर धारी।
अबला अनघ अनवसर अनुचित,
होति, हेरि करिहैं रखवारी।2।
यों मन गुनति दुसासन दुरजन,
तमक्यो तकि गहि दुहुँ कर सारी।
सकुचि गात गोवति कमठी ज्यों,
हहरी हृदयँ, बिकल भइ भारी।।3।
अपनेनि को अपनो बिलोकि बल,
सकल आस बिस्वास बिसारी।
हाथ उठाइ अनाथनाथ सों
‘पाहि पाहि पं्रभु! पाहि’ पुकारी।4।
तुलसी परखि प्रतीति प्रीति गति,
आरतपाल कृपालु मुरारी।
बसन बेष राखी बिसेषि लखि
बिरूदावलि मूरति नर नारी।5।
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गहगह गगन दुंदुभी बाजी।
बरषि सुमन सुरगन गावत जस,
हरष मगन मुनि सुजन समाजी।1।
सानुज सगन ससचिव सुजोधन,
भए मुख मलिन खाइ खल खाजी।
लाज गाज उपवनि कुचाल कलि
परी बजाइ कहूँ कहुँ गााजी।।2।
प्रीति प्रतीति द्रुपदत नया की,
भली भूरि भय भभरि न भाजी।
कहि पारथ सारथिहि सराहत
गई बहोरि गरीब नेवाजी।3।
सिथिल सनेह मुदित मनहिं मन,
बसन बीच बिच बधू बिराजी।
सभा सिंधु जदुपति जय जय जनु,
रमा प्रगटि त्रिभुवन भरि भ्राजी।4।
जुग जुग जग साके केसव के,
समन कलेस कुसाज सुसाजी।
तुलसी को न होइ सुनि कीरति,
कृष्न कृपालु भगति पथ राजी।5।