भाग 3 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि
दोहा
बिच सिकार जंगल मिला, महिमा मीर मँगोल।
कहै भोग मुहि करन दै, मैं भाँजी दै पोल॥22॥
तोटक
कहूँ जु ऐसै साह सों, जलाऊँ लौह दाह सों।
न काहू को पनाह सों, बचै तू काहू राह सों॥23॥
दोहा
बड़े लोग इमि कह गये, आवै औरत पास।
करै न वातें भोग फिर, कहा भिस्त की आस॥24॥
जब बेगम ऐसे कही, तब महिमा मंगोल।
करि बिचार लाचार ह्वै, मान लिये सब बोल॥25॥
करन लगे कल्लोल तब, बेगम अरु मंगोल।
कुच परसत छाती लगत, चुंबत चारु कपोल॥26॥
केलिवर्णन, छंद
कभी कंज आसन, कभी नागरेनू,
कभी वेनुदारित, कभी जोग सेनू।
कभी कंध चरनं, कभी बीपरीतं,
करे हैं अनेकं सु-आसन अजीतं॥27॥
कभी पाय छल्ले छमक ही रहे हैं
जुदे पाय घुँघरु झमक ही रहे हैं।
करैं सीसी सीसी भरैं अंग अंग,
चसम चोट मारै, भरी मैन रंग॥28॥
मच्यो सोर भारी, लिए जंघ जंघ,
लिपटिये करू ये, सकै को उलंघ।
गई फाटि आँगी, सबै बंद टूटे,
मनो मीर मंगोल करि बान छूटे॥29॥
कभी बाल ऊपर हलै हौलै-हौलै,
कभी लेट तिरछी, करै है कलोलै।
कभी बैठे-बैठे, करै केलि रीतं
कभी बैठ उकडू, अनोखी चरीतं॥30॥
कभी बाल नोचै सतर होय जाती,
कभी तर-बतर होके रस में जँभाती।
इसी तौर से केलि कर ही रहे थे,
दुहूँ रस के चसके उमह ही रहे थे॥31॥