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भीगा था अंतर्मन सारा / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'

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जब प्यार मिला बादल बन कर,
भीगा था अंतर्मन सारा।

यादों की बिजली कोंधी थी,
सैलाब अश्क का टूटा था।
दृग ठहर गए उन पर ऐसे,
था सम्मुख पल जो छूटा था।
झंकार हुई थी रग-रग में,
जागा बोझिल तन-मन सारा।

था सब कुछ बदला-बदला सा,
पैरों में माना थकन लगी
जैसे मैं राही कांटो की,
लेकिन चलने के लगन लगी।
मैं भाव पुञ्ज उत्सुक होकर,
भर लूं जैसे दामन सारा।

बादल भी छलिया जीवन-सा,
आकर चुपके छल जाता है।
फिर दूर खड़ा होकर हम पर,
ये मन ही मन मुस्काता है।
विश्वास ,लगन बसता मन में,
हर लेता तम लेकिन सारा।